Sunday 29 May 2016

Movie Review :कपूर एन्ड संस 'Kapoor and Sons'

'Kapoor and Sons':
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एक अरसे बाद, जिस साधारण सी फ़िल्म ने मुझे असाधारण तरीके से झकझोरा, जिस फ़िल्म ने मुझे खूब रुलाया और खूब हँसाया भी, वह है 'कपूर एन्ड संस'।
एक भरी-पूरी फैमिली की रोजमर्रा की ज़िन्दगी की मस्तियों, नोकझोंक, गलतियों, शरारतों और यहाँ तक कि ज़्यादतियों का जीवंत दस्तावेज है ये मूवी। अगर इस बात को शिद्दत से महसूस करना है कि 'आज की ख़ुशी का लुत्फ़ पूरी तरह डूबकर आज ही उठाना क्यूँ ज़रूरी है, तो एक बार यह मूवी देख आएं।
मिसेज कपूर जब अपने पति से गिले-शिकवे बताते हुए कहती हैं, "क्या फिर से हम खुश नहीं हो सकते?", तो दरअसल वह इंसान की ज़िंदादिली की ओर संकेत कर रही थी, कि तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद खुशियां और जिजीविषा कभी नहीं मरती।
छोटी-छोटी फ़िज़ूल बातों को नज़रअंदाज़ करना एक सफल परिवार के लिए कितना ज़रूरी है, इस मूवी से सीख सकते हैं। मुझे अपने दोस्त उर्दू शायर अब्दुल्ला राज़ का एक शेर बड़ा मौजूं लगता है-
"ये सोच के मैं चुप रहा अपनों के दरमियाँ,
सब बोलने लगेंगे तो घर टूट जायेगा।"
मूवी को देखकर मुझे हिन्दी के जनकवि नागार्जुन की कविता में निहित गार्हस्थिक प्रेम की याद आ गयी-
"घोर निर्जन में विपत्ति ने दिया है डाल,
याद आता तुम्हारा, सिन्दूर तिलकित भाल।"
'राम की शक्ति पूजा' में निराला के राम जब संकट के क्षणों में जानकी की स्मृतियों में डूबकर ऊर्जा प्राप्त करते हैं, तो गृहस्थ जीवन का सहज प्रेम प्रतिध्वनित होता है-
"नयनों का नयनों से गोपन प्रिय सम्भाषण,
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन।"
'कपूर एन्ड संस' दरअसल एक आम शहरी परिवार की आकांक्षाओं और रवैये की दिलचस्प कहानी है, जिसमें हर छोटे-छोटे लम्हे को पूरी ईमानदारी और खुलेपन से अभिव्यक्त किया गया है।
मूवी ख़त्म होने के बाद जब अपने पांच साल के भतीजे आगम से मैंने मूवी का मोरल पूछा, तो उसके मासूम से उत्तर ने दिल जीत लिया और साथ ही मुझे निरुत्तर भी-
"परिवार में झगड़ा तो करना चाहिए, पर ज़्यादा नहीं।"

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