Sunday 10 July 2016

कविता : 'मैं शहर हूं'....



मैं शहर हूं....
मुस्कानों का बोझा ढोए,
धुन में अपनी खोए-खोए
ढूंढता कुछ पहर हूं।
मैं शहर हूं।
बेमुरव्वत भीड़ में,
परछाइयों की निगहबानी,
भागता-सा हांफता-सा
शाम कब हूं, कब सहर हूं,
मैं शहर हूं।     
सपनों के बाजारों में क्या,
खूब सजीं कृत्रिम मुस्कानें,
आंखों में आंखें, बातों में बातें,
खट्टी-मीठी तानें,
नजदीकी में एक फासला,
मन-मन में ही घुला जहर हूं।
मैं शहर हूं।
मन के नाजुक से मौसम में,
भारी-भरकम बोझ उठाए,
कागज की किश्ती से शायद,
हुआ है अरसा साथ निभाए,
खुद के अहसासों पर तारी,
हूं सुकूं या फिर कहर हूं।
मैं शहर हूं।

देखा मैंने प्यारा सर्कस....

देखा मैंने प्यारा सर्कस
देखा मैंने जंबो हाथी
कूद रहे थे बंदर,
दिखा रहे थे खेल शेर फिर,
झूम रहे थे जोकर
जोकर ने फिर नाच-नाचकर
ऐसी कूद लगाई,
हो गई सिट्टी-पिट्टी गुम यों,
जान गले में आई।
फिर जोकर ने ठुमक-ठुमककर
ऐसा खेल दिखाया,
मटक-मटक के लोट-पोटकर
हमको खूब हंसाया
बंदर थे मनमौजी इतने,
मचा रहे थे शोर,
कभी खड़े हो, कभी बैठकर,
घूमें चारों ओर।

© निशान्त जैन

बाल कविता संकलन 'शादी बन्दर मामा की' में संकलित।
(नंदन, अक्टूबर 2015 में प्रकाशित)