Monday 26 June 2017

क्या पढ़ रहे हैं आजकल?

क्या पढ़ रहे हैं आजकल?



मैंने अपने एक दोस्त एक शाम जब ये सवाल यूँ ही पूछा, तो उसने मुझे एनसीईआरटी और योजना से लेकर इंडिया ईयरबुक और लक्ष्मीकान्त तक न जाने कितने नाम गिना दिए; मैंने हल्की सी मुस्कान के साथ उससे दोबारा पूछा, कि टेक्स्ट बुक्स और परीक्षा केंद्रित सामग्री के अलावा क्या पढ़ रहे हो आजकल?

मेरा ये सवाल सुनकर वह चौंका और मुझे ध्यान से देखने लगा, जैसे मैंने कोई अवांछित या अनपेक्षित सी बात पूछ ली हो। होना क्या था, फिर वह शाम काफ़ी विचारोत्तेजक और दिलचस्प गुज़री। उस शाम की बातचीत की कुछ ज़रूरी और काम की बातें आपसे साझा कर रहा हूँ।

हममें से ज़्यादातर लोग सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के दौरान बेहद सीमित और संकीर्ण सा रवैया अपनाने के हिमायती होते हैं। कुछ निर्धारित टेक्स्ट बुक और चुनिंदा पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ना एकदम पर्याप्त है और इसके अलावा अगर हम कुछ भी रोचक-मनोरंजक फ़िक्शन या नॉन-फ़िक्शन या कोई और मैगज़ीन और अपनी रूचि से जुड़ा साहित्य पढ़ रहे हैं, तो यह सिविल सेवा परीक्षा की गम्भीर तैयारी के साथ अन्याय जैसा है, ऐसा हममें से अधिकतर लोग सोचते हैं।

हालाँकि इसमें कोई संदेह नहीं, कि तैयारी सिविल सेवा परीक्षा की हो या अन्य किसी परीक्षा की, तैयारी फ़ोकस्ड और केंद्रित होनी ही चाहिए, ताकि बेहतर आउटपुट आ सके, पर मैं साथ ही यह भी जोड़ना चाहूँगा कि नए पैटर्न और ट्रेंड को देखते हुए रीडिंग हैबिट एक अनिवार्य ज़रूरत बनकर उभरी है। आइए समझते हैं क्यों और कैसे?

आपने सिविल सेवा परीक्षा के हाल ही के प्रश्नपत्रों में महसूस किया कि पूछे जाने वाले सवालों का दायरा पहले से ज़्यादा व्यापक ही हुआ है और यह अंदाज़ा लगाना सचमुच मुश्किल है, कि सवालों के स्त्रोत कितने विविध और बिखरे हुए हो सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हमारी तैयारी का दायरा भी ठीक-ठाक व्यापक होना चाहिए, जिसमें हम अपनी आँख-कान खुले रखकर नयी चीज़ों को लगातार सीखते रहें। इस तरह अपने लेखन कौशल को निखारने के लिए प्रमुख तौर पर दो चीज़ों की दरकार होती है, एक तो अच्छी स्तरीय सामग्री (content) और दूसरा भाषा पर अधिकार, जिसमें हमारी शब्दावली (vocabulary) और शैली (style) महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रीडिंग हैबिट यानी पढ़ने की आदत या पढ़ने का शौक़, इन दोनों ज़रूरतों को पूरा करके लेखन कौशल को निखारने में ज़बरदस्त मदद करता है। टेक्स्ट बुक से अलग कुछ और पढ़ते-पढ़ते न केवल नयी जानकारियों और ज्ञान से रु-ब-रु होने का मौक़ा मिलता है, बल्कि भाषा पर पकड़ भी मज़बूत होती है। साथ ही एक बेहतरीन आदत का विकास होता और आनंद की अनुभूति होती है, सो अलग।
पढ़ना भी बाक़ी रूचियों (hobbies) की तरह एक शानदार और दिलचस्प हॉबी है। लेकिन सवाल है कि इस तरह की शौक़िया रीडिंग कब करें और पढ़ें तो क्या पढ़ें?
पहली बात का जवाब तो यह है कि जब टेक्स्ट बुक पढ़ते-पढ़ते ऊब जाएँ, या फ़ुर्सत में हों, या ट्रैवल कर रहे हों, तो यूँ ही कोई भी किताब या मैगज़ीन, जो आपको पसंद हो या आपको आकर्षित करे, उसे पढ़ने का वक़्त निकालें।
लेकिन हिंदी में क्या पढ़ें, यह सवाल काफ़ी प्रासंगिक और ज्वलंत सा हो जाता है। मैं इस सवाल का जवाब खोजने में आपकी मदद करने की कोशिश करता हूँ।
ऐसी किताबों को आप सुविधा और रूचि के अनुसार तीन-चार कैटेगरी में बाँट सकते हैं:-
पहली श्रेणी में वे किताबें आती हैं, जो सीधे-सीधे परीक्षा के पाठ्यक्रम से जुड़ी नहीं हैं, पर उन्हें पढ़कर सामान्य अध्ययन या विषय पर अपनी पकड़ मज़बूत की जा सकती है और सोच का दायरा बढ़ाने व चिंतन की गहराई बढ़ाने में मदद मिलती है। ये किताबें, इतिहास, राजनीति, शासन, अंतरराष्ट्रीय सम्बंध, अर्थशास्त्र, समाज, नीति और दर्शन पर सामान्य रीडर्स की रूचि के हिसाब से लिखी जाती हैं और आपकी समझ को गहरा और व्यापक बनाती हैं। इन किताबों में अमर्त्य सेन, रामचंद्र गुहा, गुरचरन दास, ज़्याँ द्रेजे, रजनी कोठारी, शशि थरूर, राम आहूजा, श्यामाचरण दुबे, प्रताप भानु मेहता, बिपिन चंद्रा, सुनील खिलनानी आदि लेखकों की किताबें शामिल हो सकती हैं।
इनमें से ज़्यादातर किताबों के बेहतरीन हिंदी अनुवाद आजकल बाज़ार और अमेजन वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। इस तरह की ज्ञानवर्धक और प्रामाणिक किताबों के लिए भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट और प्रकाशन विभाग की किताबें भी बेहतर विकल्प हैं।

दूसरी तरह की किताबें हैं सदाबहार रोचक साहित्यिक किताबें जैसे-  प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, फणीश्वरनाथ रेणु, श्रीलाल शुक्ल, अमरकान्त, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी काशीनाथ सिंह, उदय प्रकाश, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा आदि के उपन्यास, कहानियाँ, नाटक और व्यंग्य। यह क्लासिक साहित्य आपको विविध तरह के समाजों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक जीवन और समस्याओं को समझने में मदद करके संवेदनशील बनाता है और भाषाई कौशलों का विकास होता है सो अलग। अगर आप कविताओं में दिलचस्पी रखते हैं, तो निराला, प्रसाद, महादेवी, पंत, दिनकर, मुक्तिबोध, अज्ञेय, नागार्जुन, राजेश जोशी की कविताओं से लेकर दुष्यंत कुमार, निदा फ़ाज़ली, जावेद अख़्तर और गुलज़ार की ग़ज़लें आपका इंतज़ार कर रही हैं। हिंदी और उसकी सभी बोलियों-उपभाषाओं के बेहतरीन साहित्य को इंटरनेट पर पढ़ने के लिए आप 'कविता कोश' और 'गद्य कोश' नामक दो बेहतरीन वेबसाइटों का सहारा ले सकते हैं।

तीसरी तरह की किताबें भी शौक़िया क़िस्म की किताबें हैं। ये है युवाओं पर केंद्रित नया और ताज़गी भरा साहित्य, जो 'नई वाली हिंदी' में युवा लेखकों द्वारा लिखा गया है। यह ज़्यादातर कहानियाँ, नॉवल या ट्रेवलोग़ (यात्रा वृतांत) हैं, जिनसे युवा पाठक ख़ुद को जोड़ पाते हैं और इन्हें हाथों-हाथ ले रहे हैं। मिसाल के तौर पर हाल ही में चर्चित नीलोत्पल मृणाल की 'डार्क हॉर्स', दिव्यप्रकाश दुबे की 'मसाला चाय' और 'शर्तें लागू', सत्य व्यास की 'दिल्ली दरबार' और 'बनारस टाक़ीज', पंकज दुबे की 'लूज़र कहीं का', अनुराधा बेनीवाल की 'आज़ादी मेरा ब्राण्ड' जैसी किताबें शामिल हैं। इस तरह के नयी क़िस्म के साहित्य के भीतर इंग्लिश के लोकप्रिय लेखकों; चेतन भगत, अमीश त्रिपाठी, अश्विन सांघी, आनंद नीलकंठन की लोकप्रिय किताबों के हिंदी अनुवाद भी शामिल किए जा सकते हैं।


किताबों के अलावा कुछ अच्छी पत्रिकाएँ भी हैं, जो शौक़िया तौर पर पढ़ी जा सकती हैं। जैसे- हिंदुस्तान टाइम्स समूह की 'कादम्बिनी' और दैनिक भास्कर समूह की 'अहा ज़िंदगी'। नवनीत, नया ज्ञानोदय, आजकल, पाखी आदि भी कुछ ऐसी ही पत्रिकाएँ हैं।

समय-समय पर बुक कल्चर को बढ़ावा देने के लिए पुस्तक मेले और लिट्रेचर फ़ेस्टिवल जैसे आयोजन आजकल काफ़ी होने लगे हैं। इनमें टहलकर किताबों की दुनिया की ताज़गी महसूस की जा सकती है और समकालीन साहित्यिक और सूचनाप्रद व ज्ञानवर्धक किताबों व पत्रिकाओं से रु-ब-रु हुआ जा सकता है।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि रीडिंग हैबिट या पढ़ने का शौक़ आपकी सोच और समझ को विस्तृत और व्यापक बनाता है, आपको बेहतर एक्सपोज़र देता है और भाषा पर आपका अधिकार मज़बूत तो करता ही है। ऊपर जो कुछ मैंने लिखा है, उससे घबराएँ नहीं। ऊपर लिखी किसी भी किताब को पढ़ना यूपीएससी की परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिए क़तई अनिवार्य नहीं है। इनमें से आप अपनी रूचि और पसंद के मुताबिक़ किताबें चुनकर अपनी एक ज़िंदगी भर चलने वाली शानदार हॉबी विकसित कर सकते हैं, और कदाचित यह भी सम्भव है कि आपकी सिविल सेवा परीक्षा के किसी चरण में इस पढ़ाई के शौक़ का कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लाभ मिल जाए। तो अब ख़ुद से और अपने दोस्तों से गपशप करते हुए पूछ ही लीजिए- 'क्या पढ़ रहे हैं आजकल?'

-निशान्त जैन 
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)



Thursday 15 June 2017

तकनीक से क़दमताल करना सीखें...

एक ज़माना था, जब अस्सी के दशक में भारत में टेलीविजन आया, तो खलबली सी मच गयी। लोगों के लिए इस बात पर भरोसा करना मुश्किल था, कि एंटीना से सिग्नल पकड़कर कैसे टीवी स्क्रीन पर चित्रहार या चलचित्र दिख सकता है। यह अविश्वास केवल तकनीक पर ही नहीं था, बल्कि अविश्वास और आशंकाएँ इस नयी तकनीक यानी टीवी के समाज और विशेषकर युवाओं पर दुष्प्रभाव को लेकर भी थीं।
कई लोगों को लगता था कि आने वाली पीढ़ी इस 'बुद्धू बक्से' के आकर्षण में फँसकर बर्बाद हो जाएगी। यही क़िस्सा वर्ष 2000 के बाद के दौर में भारत में मोबाइल फ़ोन के बढ़ते प्रचलन को लेकर भी दोहराया गया। न जाने कितने लोगों को लगता था कि यह हाथ में आने वाला छोटा सा यंत्र तो युवा पीढ़ी को बिगाड़ने में कोई क़सर नहीं छोड़ेगा। हालाँकि आज भी ऐसा विचार रखने वाले लोगों की संख्या ठीक-ठाक है।
मोबाइल और इंटरनेट के प्रसार के साथ सूचना क्रांति और मनोरंजन के नए युग का सूत्रपात भी हुआ। हर सवाल का जवाब 'गूगल' बाबा एक क्लिक पर बताने लगे। विकीपीडिया पर ज्ञान-विज्ञान का अथाह भंडार उपलब्ध हुआ। मुख्यधारा के मीडिया के साथ-साथ तेज़ी से एक नए क़िस्म के मीडिया -'सोशल मीडिया' का भी प्रचलन तेज़ी से बढ़ा, जहाँ अपनी बात साझा करने के लिए सम्पादक जी से अनुरोध करने की भी आवश्यकता नहीं है। समाज के वंचित वर्गों और युवाओं को भी खुलकर अपनी बात रखने का खुला मंच मिला और वाद-विवाद-संवाद के नए अवसर सामने आने लगे। निस्सन्देह इस सबसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पारदर्शिता की संस्कृति को भी ख़ूब बढ़ावा मिला।
टीवी से लेकर मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया तक, संचार और सूचना क्रांति का लम्बा सफ़र तय कर चुके इस युग में क्या हममें से कोई विज्ञान और तकनीकी के इन उपहारों के बग़ैर अपना रोज़मर्रा का जीवन इन साधनों के बग़ैर बिताने की कल्पना भी कर सकता है? वही रूढ़िवादी क़िस्म के लोग, जो अपने-अपने युग में नयी तकनीक के प्रभाव को लेकर आशंकित महसूस करते थे, क्या वही बाद में उस तकनीक के बढ़े उपयोगकर्ता नहीं बने? इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज हम तकनीक के साधनों के बग़ैर एक दिन बिताने की कल्पना नहीं कर सकते।

जब हम रोज़मर्रा के जीवन और सुख-सुविधाओं के उपभोग में विज्ञान-तकनीकी के साधनों का जमकर उपयोग करते हैं, तो ज्ञानार्जन में तकनीकी के उपयोग को लेकर झिझक कैसी। यदि युवाओं द्वारा सिविल सेवा परीक्षा और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के संदर्भ में बात करें, तो अपने नोलेज और लर्निंग के विस्तार और एक्सपोज़र के लिए तकनीकी का महत्व और भी अधिक पढ़ जाता है।

डार्विन के 'योग्यतम की उत्तरजीविता' (Survival of the fittest) के सिद्धांत की तर्ज़ पर हमें समझना होगा कि तेज़ी से बदलती तकनीक के इस दौर में तकनीक से क़दमताल करना वक़्त की माँग है। किसी शायर ने लिखा भी है,
'इस मशीनी दौर में रफ़्तार ही पहचान है,
धीरे-धीरे जो चलोगे, गुमशुदा हो जाओगे।'

यदि सिविल सेवा परीक्षा के विशेष संदर्भ में बात करें, तो हमें समझना होगा इस परीक्षा की प्रकृति डायनमिक और व्यापक है, कि इस परीक्षा की तैयारी के विभिन्न पक्षों को कवर करने के लिए विभिन्न प्रासंगिक स्त्रोतों को फ़ॉलो करना अपरिहार्य हो जाता है। इनमें किताबों और अख़बार-पत्रिका के अलावा टीवी, इंटरनेट, यू ट्यूब आदि का विवेकपूर्ण उपयोग भी शामिल है। आज भारत सरकार की अनेक वेबसाइटें और ढेरों अन्य निजी वेबसाइटें परीक्षा की तैयारी के लिए प्रासंगिक भरपूर प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध करा रही हैं। बस शर्त यह है कि जो भी वेबसाइट फ़ॉलो करें, उसकी साख और प्रतिष्ठा भी जाँच लें।
हालाँकि तकनीक की आँधी के इस दौर में, उसके विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग से उसे सम्भालना भी उतना ही ज़रूरी है। तकनीक आप का कल सँवार भी सकती है और आपके हाथ जला भी सकती है।
दिनकर ने लिखा भी है-
'सावधान मनुष्य यदि विज्ञान है तलवार,
तो इसे दे फेंक तजकर मोह स्मृति के पार,
खेल सकता तू नहीं, ले हाथ में तलवार,
काट लेगा अंग है तीखी बड़ी यह धार।'

यह भी समझना ज़रूरी है कि तकनीक का अविवेकपूर्ण और अत्यधिक उपयोग घातक भी हो सकता है। सोशल मीडिया का ही उदाहरण लें। एक ओर सोशल मीडिया ने संवाद की संस्कृति को बढ़ावा दिया है, वहीं दूसरी ओर इसकी लत आज के युग की बड़ी मनोवैज्ञानिक समस्या बनकर उभरी है। हमें चैटिंग या सर्फिंग करते वक़्त ये अंदाज़ा ही नहीं रहता कि दिन में कितने घंटे हमने कम्प्यूटर या मोबाइल पर आँखें गड़ाए बिता दिए। फ़ेसबुक और वाट्सएप के अतिशय उपयोग की लत ने ढेरों युवाओं को तनाव और अवसाद की ओर धकेला है।
लिहाज़ा तकनीक से इस्तेमाल को लेकर व्यर्थ ही आशंकित रहने वालों को यह समझना होगा कि तकनीक से क़दमताल करके ही हम नए दौर की रफ़्तार में समांजस्य बैठाकर सर्वाइव कर सकते हैं। पर यह भी ध्यान रहे कि तकनीक की आँधी में बहकर तकनीक का अंधाधुँध उपयोग भी कोई लाभ देने वाला नहीं है। तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता एक लत का रूप लेकर नए क़िस्म की समस्याओं को जन्म दे सकती है।

-निशान्त जैन
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)