Thursday, 15 September 2016

दिवाली की यादें ......

दिवाली की यादें ......

युवावस्था के इस पड़ाव पर जब मुड़कर बचपन की ओर देखता हूँ तो बचपन की खट्टी-मीठी यादों में दिवाली की यादें भुलाए नहीं भूलती। दिवाली के साथ ग़ज़ब के संयोग जुड़े हैं। 1986 की छोटी दिवाली को मेरठ के सरकारी अस्पताल में मैं जन्मा। मम्मी बताती हैं कि नर्स ने चुटकी लेते हुए कहा कि लो तुम्हारे राम पधारे हैं। 
ख़ैर, हर शहर का पुराना इलाक़ा उस शहर की संस्कृति और जीवंतता का प्रतीक होता है। पूरा बचपन और किशोरावस्था पुराने मेरठ शहर के गली-कूँचों और मुहल्लों में बीती। होली और दिवाली हम बच्चों के पसंदीदा त्यौहार थे। जिस तरह होली के आस-पास हमारे मुहल्ले से बिना रंगों में पुते निकलना नामुमकिन था, उसी तरह दिवाली पर भी गली में आगंतुकों का स्वागत पटाखों से किया जाता। अनार, चकरी, बिजली बम, रोक़िट और लड़ी, सबसे लोकप्रिय पटाखे थे।


दिवाली का दूसरा महत्वपूर्ण एंगिल था - घर की सम्पूर्ण सफ़ाई। इस पुनीत कार्य में बच्चा पार्टी का भरपूर सहयोग लिया जाता। मुझे बख़ूबी याद है कि हम सारे पलंग बाहर निकलकर, छत और कमरों के कोने-कोने बुहारते। पलंग बाहर निकल जाने पर कमरा बड़ा-बड़ा दिखता और बच्चे ख़ूब धमाचौकड़ी मचाते।
दिवाली पर स्कूल में लगातार पाँच दिन छुट्टी होती थी। गरमी की छुट्टियों के बाद यही सबसे लम्बी छुट्टियाँ थी। मम्मी घर को संवारना और कम ख़र्चे में घर चलाना बख़ूबी जानती थीं। धनतेरस पर चाहे एक तश्तरी या चम्मच ही ख़रीदें पर ख़रीदती ज़रूर थीं। दिवाली पर पटाखे बहुत महँगे पड़ते थे पर हम बच्चे थोड़े में संतुष्ट हो जाते। थोड़ा और बड़े होकर समझ में आया कि पटाखे ख़रीदने से अच्छा है, छत पर जाकर आराम से आतिशबाज़ी निहारो। न हींग लगता न फ़िटकरी, और रंग भी चोखा होता। न आतिशबाज़ी में हाथ जलाने का जोखिम और न ही धेले भर का ख़र्चा। मुझे याद है कि हम बच्चे मिलकर घर के मुख्य द्वार पर रंगबिरंगी कंदील टाँगते थे, जिसका तार बहुत लम्बा होता था।  ख़ास बात यह थी कि चाहे कोई बाहर पढ़ता हो या नौकरी करता हो, दिवाली के दिन घर आना और दादी के हाथ की पंजीरी या लौकी की बर्फ़ी खाना लगभग अनिवार्य होता था। इस बार दिवाली पर अम्माजी की कमी तो बहुत खलेगी, पर हम उनके जीवट और जीवंतता से प्रेरणा लेकर ख़ूब मन से दिवाली मनाएँगे।

 जैन परिवारों में दिवाली भगवान महावीर का निर्वाण दिवस भी है। जब भगवान महावीर आठों कर्मों का नाश करने की ओर अग्रसर होकर गहन ध्यान में तल्लीन थे, तब उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) इंद्रभूति गौतम स्वामी कैवल्य ज्ञानप्राप्ति की ओर अग्रसर थे। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन, यह अद्भुत संयोग बना, जब तीर्थंकर महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ और गौतम स्वामी को कैवल्य। इस संदर्भ में महावीर की एक बात उन्हें विशिष्ट बनाती है। उन्होंने अपने शिष्य से कभी अपना अनुकरण करने के लिए नहीं कहा। उनका मानना था कि प्रत्येक मानव रत्नत्रय- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के पथ पर चलकर अपने पुरुषार्थ से सिद्धत्व प्राप्त कर स्वयं भगवान बन सकता है। इस तरह भगवान महावीर प्राणियों से अपनी शरण में आने को नहीं कहते। वह प्रत्येक जीव को उसका अनंत बल और क्षमताएँ स्मरण कराकर प्रत्येक आत्मा के परमात्मा बन सकने की सम्भावना व्यक्त कर प्राणिमात्र की स्वतंत्रता की घोषणा करते हैं। महावीर ने यही उपदेश अपने सबसे निकट शिष्य इंद्रभूति गौतम को दिया और उन्हें कैवल्य का मार्ग दिखाया।

मुझे बख़ूबी याद है, दिवाली की पूर्व संध्या पर मंदिर में तीर्थंकर प्रतिमा के समक्ष जब पूरा परिवार घी के दिये जलाने जाता और दिवाली की अलसुबह चार-पाँच बजे सब मिलकर जैन मंदिर में निर्वाण लड्डू या श्रीफल अर्पित करते। दिवाली की रात को घर पर पूजा तो होती ही थी। जैन समुदाय दिवाली पर तीर्थंकर भगवान के कैवल्य ज्ञान रूपी लक्ष्मी की उपासना करता है। साथ ही पूजा में 'निर्वाण काण्ड' का पाठ होता। निर्वाण काण्ड उन सभी सिद्धों की स्तुति है, जिन्होंने आत्मसाधना द्वारा मोक्ष प्राप्त किया। जैन दर्शन की यह विशेषता है कि यह किसी भी व्यक्ति विशेष की पूजा पर बल न देकर गुणों की पूजा करता है। यही कारण है कि जैन धर्म का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण मंत्र 'नमोकार मंत्र' भगवान महावीर या किसी अन्य तीर्थंकर की उपासना न करके कैवल्य प्राप्त करने वाले सभी अरिहंतों व सिद्धों और सभी साधुओं को नमस्कार करता है। 
ज्ञान और तप-त्याग-संयम को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के कारण ही जैन लोग दिवाली का उत्सव तो मनाते हैं, पर धर्माराधना और सादगी के साथ। 

5 comments:

  1. आपका लेख पढकर हमेशा ही हिन्दी शब्दकोश बढ जाता है ।।
    लेकिन दीवाली पर आपके इस लेख से मुझे जैन होने के बावजूद भी जैन धर्म के बारे बहुत छोटी,पर अत्यंत उपयोगी बाते जानने को मिली । बहुत बहुत बधाई व दीवाली की अनंत शुभकामनाये ।

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  3. दीपावली पर सरसों के तेल के दीपक जलने का वैज्ञानिक महत्व यह है की सरसों का तेल जलने पर कार्बन और सल्फर बनाता है जबकि मोमबत्ती जलने से केवल कार्बन बनता है सल्फर बैक्टीरिया और वायरस को मारने का कार्य करता है यह सूक्ष्म जीवो के जीवन चक्र को हैक करने का कार्य करता है सल्फर कवक इन्फेक्शन को रोकने का कार्य भी करता है इसलिय त्वचा बिशेषज्ञ त्वचा पर कवक का इन्फेक्शन होने पर सल्फर युक्त दवाएं लेने का परामर्श देते है इसलिए मेरा आप सबसे निवेदन है की इस बार सरसों के तेल के दीपक जलाकर आपने वातावरण को हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस से मुक्त बनाये शुभ दीपावली
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  4. इसे पढ़ कर एक छन के लिए में अपनी बचपना जीवन में खो गया।।।।
    बचपन के यादें बचपन में रह जाती है।

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