एक ज़माना था, जब अस्सी के दशक में भारत में टेलीविजन आया, तो खलबली
सी मच गयी। लोगों के लिए इस बात पर भरोसा करना मुश्किल था, कि एंटीना से
सिग्नल पकड़कर कैसे टीवी स्क्रीन पर चित्रहार या चलचित्र दिख सकता है। यह
अविश्वास केवल तकनीक पर ही नहीं था, बल्कि अविश्वास और आशंकाएँ इस नयी
तकनीक यानी टीवी के समाज और विशेषकर युवाओं पर दुष्प्रभाव को लेकर भी थीं।
कई
लोगों को लगता था कि आने वाली पीढ़ी इस 'बुद्धू बक्से' के आकर्षण में
फँसकर बर्बाद हो जाएगी। यही क़िस्सा वर्ष 2000 के बाद के दौर में भारत में
मोबाइल फ़ोन के बढ़ते प्रचलन को लेकर भी दोहराया गया। न जाने कितने लोगों
को लगता था कि यह हाथ में आने वाला छोटा सा यंत्र तो युवा पीढ़ी को
बिगाड़ने में कोई क़सर नहीं छोड़ेगा। हालाँकि आज भी ऐसा विचार रखने वाले
लोगों की संख्या ठीक-ठाक है।
मोबाइल और इंटरनेट के प्रसार के साथ
सूचना क्रांति और मनोरंजन के नए युग का सूत्रपात भी हुआ। हर सवाल का जवाब
'गूगल' बाबा एक क्लिक पर बताने लगे। विकीपीडिया पर ज्ञान-विज्ञान का अथाह
भंडार उपलब्ध हुआ। मुख्यधारा के मीडिया के साथ-साथ तेज़ी से एक नए क़िस्म
के मीडिया -'सोशल मीडिया' का भी प्रचलन तेज़ी से बढ़ा, जहाँ अपनी बात साझा
करने के लिए सम्पादक जी से अनुरोध करने की भी आवश्यकता नहीं है। समाज के
वंचित वर्गों और युवाओं को भी खुलकर अपनी बात रखने का खुला मंच मिला और
वाद-विवाद-संवाद के नए अवसर सामने आने लगे। निस्सन्देह इस सबसे अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता और पारदर्शिता की संस्कृति को भी ख़ूब बढ़ावा मिला।
टीवी
से लेकर मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया तक, संचार और सूचना क्रांति का
लम्बा सफ़र तय कर चुके इस युग में क्या हममें से कोई विज्ञान और तकनीकी के
इन उपहारों के बग़ैर अपना रोज़मर्रा का जीवन इन साधनों के बग़ैर बिताने की
कल्पना भी कर सकता है? वही रूढ़िवादी क़िस्म के लोग, जो अपने-अपने युग में
नयी तकनीक के प्रभाव को लेकर आशंकित महसूस करते थे, क्या वही बाद में उस
तकनीक के बढ़े उपयोगकर्ता नहीं बने? इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज हम
तकनीक के साधनों के बग़ैर एक दिन बिताने की कल्पना नहीं कर सकते।
जब
हम रोज़मर्रा के जीवन और सुख-सुविधाओं के उपभोग में विज्ञान-तकनीकी के
साधनों का जमकर उपयोग करते हैं, तो ज्ञानार्जन में तकनीकी के उपयोग को लेकर
झिझक कैसी। यदि युवाओं द्वारा सिविल सेवा परीक्षा और अन्य प्रतियोगी
परीक्षाओं की तैयारी के संदर्भ में बात करें, तो अपने नोलेज और लर्निंग के
विस्तार और एक्सपोज़र के लिए तकनीकी का महत्व और भी अधिक पढ़ जाता है।
डार्विन
के 'योग्यतम की उत्तरजीविता' (Survival of the fittest) के सिद्धांत की
तर्ज़ पर हमें समझना होगा कि तेज़ी से बदलती तकनीक के इस दौर में तकनीक से
क़दमताल करना वक़्त की माँग है। किसी शायर ने लिखा भी है,
'इस मशीनी दौर में रफ़्तार ही पहचान है,
धीरे-धीरे जो चलोगे, गुमशुदा हो जाओगे।'
यदि
सिविल सेवा परीक्षा के विशेष संदर्भ में बात करें, तो हमें समझना होगा इस
परीक्षा की प्रकृति डायनमिक और व्यापक है, कि इस परीक्षा की तैयारी के
विभिन्न पक्षों को कवर करने के लिए विभिन्न प्रासंगिक स्त्रोतों को फ़ॉलो
करना अपरिहार्य हो जाता है। इनमें किताबों और अख़बार-पत्रिका के अलावा
टीवी, इंटरनेट, यू ट्यूब आदि का विवेकपूर्ण उपयोग भी शामिल है। आज भारत
सरकार की अनेक वेबसाइटें और ढेरों अन्य निजी वेबसाइटें परीक्षा की तैयारी
के लिए प्रासंगिक भरपूर प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध करा रही हैं। बस शर्त यह
है कि जो भी वेबसाइट फ़ॉलो करें, उसकी साख और प्रतिष्ठा भी जाँच लें।
हालाँकि
तकनीक की आँधी के इस दौर में, उसके विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग से उसे
सम्भालना भी उतना ही ज़रूरी है। तकनीक आप का कल सँवार भी सकती है और आपके
हाथ जला भी सकती है।
दिनकर ने लिखा भी है-
'सावधान मनुष्य यदि विज्ञान है तलवार,
तो इसे दे फेंक तजकर मोह स्मृति के पार,
खेल सकता तू नहीं, ले हाथ में तलवार,
काट लेगा अंग है तीखी बड़ी यह धार।'
यह
भी समझना ज़रूरी है कि तकनीक का अविवेकपूर्ण और अत्यधिक उपयोग घातक भी हो
सकता है। सोशल मीडिया का ही उदाहरण लें। एक ओर सोशल मीडिया ने संवाद की
संस्कृति को बढ़ावा दिया है, वहीं दूसरी ओर इसकी लत आज के युग की बड़ी
मनोवैज्ञानिक समस्या बनकर उभरी है। हमें चैटिंग या सर्फिंग करते वक़्त ये
अंदाज़ा ही नहीं रहता कि दिन में कितने घंटे हमने कम्प्यूटर या मोबाइल पर
आँखें गड़ाए बिता दिए। फ़ेसबुक और वाट्सएप के अतिशय उपयोग की लत ने ढेरों
युवाओं को तनाव और अवसाद की ओर धकेला है।
लिहाज़ा तकनीक से
इस्तेमाल को लेकर व्यर्थ ही आशंकित रहने वालों को यह समझना होगा कि तकनीक
से क़दमताल करके ही हम नए दौर की रफ़्तार में समांजस्य बैठाकर सर्वाइव कर
सकते हैं। पर यह भी ध्यान रहे कि तकनीक की आँधी में बहकर तकनीक का अंधाधुँध
उपयोग भी कोई लाभ देने वाला नहीं है। तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता एक लत का
रूप लेकर नए क़िस्म की समस्याओं को जन्म दे सकती है।
-निशान्त जैन
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)
वही उम्दा शैली, लाज़वाब... पूरे आलेख के बीच बीच मे पद्य के मुक्तकों की भीनी भीनी फ़ुहारें आनंद देती हैं।
ReplyDeleteबहुत कुछ सिखना है अभी आपसे 🙏
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