Saturday, 27 April 2019

मुर्गे का घमंड...

मुर्गा बोला यूँ मुर्गी से
हूँ मैं सबसे हटकर,
जंगल सारा जाग उठे जब
देता बाँग मैं डटकर।

कलगी मेरी जग से सुंदर
चाल मेरी मस्तानी,
उड़ न सकूँ भले जीवन भर
हार कभी न मानी।

मुर्गी बोली फिर मुर्गे से
बस  छोड़ो  इतराना,
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन
अपनी - अपनी  गाना।

करके देखो एक दिन ऐसा
मत देना तुम बाँग,
मानूँ तुम्हें मैं तीसमार खाँ
रुका रहे जो चाँद।

© निशान्त जैन

बाल कविता संकलन 'शादी बन्दर मामा की' में संकलित।
(दैनिक जनवाणी, 8 अप्रैल 2012  में प्रकाशित)

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