इठलाती-बलखाती दौड़े
शान देश की मेट्रो रेल।
एक बार बैठे जो उसमें,
बैठा ना जाए फिर बस में,
ललचाए मन हर यात्री का,
हो जैसे जादुई खेल।
झूम-झूम बस दौड़ी जाए,
पलक झपकते ही पहुँचाए,
क्या शताब्दी और क्या राजधानी
इसके आगे हैं सब फेल।
ट्रैफिक का झंझट अब निपटा,
समय बचा और काम भी सिमटा,
सुविधा और तकनीकी का है,
नया-निराला अद्भुत मेल।
देख-देख हैं सब हैरान,
रेल में भी इतना आराम
कभी है ऊपर, कभी है नीचे
जैसे दिया किसी ने ठेल।
शोर मचाए बिना ये आए
धुआँ उड़ाए बिना ये जाए,
ध्वनि-वायु के प्रदूषणों को,
अब क्यों मोनू-पिंकी झेल?
© निशान्त जैन
बाल कविता संकलन 'शादी बन्दर मामा की' में संकलित।
(पंजाब केसरी में 11 अप्रैल, 2007 को प्रकाशित)
शान देश की मेट्रो रेल।
एक बार बैठे जो उसमें,
बैठा ना जाए फिर बस में,
ललचाए मन हर यात्री का,
हो जैसे जादुई खेल।
झूम-झूम बस दौड़ी जाए,
पलक झपकते ही पहुँचाए,
क्या शताब्दी और क्या राजधानी
इसके आगे हैं सब फेल।
ट्रैफिक का झंझट अब निपटा,
समय बचा और काम भी सिमटा,
सुविधा और तकनीकी का है,
नया-निराला अद्भुत मेल।
देख-देख हैं सब हैरान,
रेल में भी इतना आराम
कभी है ऊपर, कभी है नीचे
जैसे दिया किसी ने ठेल।
शोर मचाए बिना ये आए
धुआँ उड़ाए बिना ये जाए,
ध्वनि-वायु के प्रदूषणों को,
अब क्यों मोनू-पिंकी झेल?
© निशान्त जैन
बाल कविता संकलन 'शादी बन्दर मामा की' में संकलित।
(पंजाब केसरी में 11 अप्रैल, 2007 को प्रकाशित)
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