Monday, 29 April 2019

गिफ्ट (लघुकथा)

श्याम नाम था उसका। युवावस्था की दहलीज पर खड़े सागर के घर से दो घरों के फासले पर स्थित भैंसों के तबेले पर दूध की डेरी चलाने वाले अपने पिता के साथ रहता था वह पाँच साल का हँसमुख बच्चा। गली में रहने वाले उसकी पीढ़ी के बच्चे समूह बनाकर खेलते। श्याम भी निहारता था तबेले से झांकता हुआ, उन 'बड़े' वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले बच्चों को। श्याम और उसके हमउम्र बच्चों में दिन में एकाध बार निर्दोष मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान हो जाता था। बच्चे क्या जानें बाहरी दुनिया के फासले? उनका संसार जात-पांत, ऊँच-नीच, बड़े-छोटे की दीवारों से कोसों दूर जो था। धीरे-धीरे श्याम बच्चों से घुल-मिल सा गया था। सागर जब भी घर से निकलता, तो श्याम अपनी मासूम सी मुस्कान बिखेर ही दिया करता था।

ग्रेजुएशन के एग्जाम की तैयारी में जुटा सागर एक दिन अपने कमरे में पढ़ता-पढ़ता कुछ आवाज़ें सुनकर चौंका। बराबर वाले कमरे में रहने वाली अपनी चाची को रेलिंग पर खड़े हुए अपनी जेठानी-देवरानी से बतियाते सुना- 'तो क्या हुआ अगर वो नीची जात का है? एक मासूम सा मन तो उसका भी है। अगर संयम के बर्थ डे पर उसके दोस्तों में से मैंने श्याम को ही नहीं बुलाया, तो कितना दिल दुखेगा उसका। आखिर वो भी तो मेरे बच्चे जैसा ही एक बच्चा है।' सुनकर सागर अपनी चाची की संवेदनशीलता पर गौरवान्वित महसूस कर रहा था। आखिर संवेदनशील सागर को मासूम श्याम से लगाव और अपनापन सा जो था। उसने भी चाची के इस नेक प्रस्ताव का नैतिक समर्थन किया।

क्या चमक थी श्याम की आँखों में, जब शायद ज़िन्दगी में पहली बार उसने कोई बर्थ डे पार्टी अटेंड की थी। खुशनुमा माहौल में संपन्न इस पार्टी के बाद चाची के कमरे में संयम के दोस्तों से मिले उपहारों को खोलने की रस्म अदायगी शुरू हुई। सागर अपने बराबर वाले स्टडी रूम में पढ़ाई में व्यस्त इस सबसे बेखबर ही था। तभी चाची के कमरे में गूंजी एक फटकार ने सागर का ध्यान खींचा। 'अरे संयम! दोबारा गिन। बच्चे तो मैंने बारह बुलाये थे पर ये गिफ्ट ग्यारह कैसे?' चाची ने लगभग चिल्लाते हुए अपने बेटे संयम को कहा।


'मम्मी, मैं बिलकुल अच्छी तरह गिन चुका हूँ, कोई दोस्त ज़रूर बिना गिफ्ट लिए आया होगा।' संयम बोला।
'जल्दी इनकी चिटों पर नाम पढ़। मुझे तो लगता है कि वो श्याम का बच्चा ही मुफ्त की दावत उड़ाकर गया है।' चाची चिल्लाईं।
'शायद ऐसा ही हो मम्मी, उसका नाम किसी चिट पर है भी नहीं।' संयम डरते हुए बोला।
'नीची जात वाले तो नीची जात के ही होते हैं। आज से संयम का उस कलुए के साथ खेलना बंद।'

चाची के इन चुभते शब्दों से हैरान और चेतनाशून्य सा होकर सागर किताब बंद कर कमरे से भागा। कहीं बराबर बरसते शब्दबाण उसके सब्र का बांध न तोड़ दें।

7 comments:

  1. जीवन का यथार्थ सत्य!

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  2. ये तो सचाई है आज के चेतना शून्य समाज की...

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  3. जी सर, यही तो
    कड़वी सच्चाई है आज के इस समाज की...

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  4. बहुत अछा सर

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  5. Nice write up! good and useful information.
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