शब्द हैं कि वे आपके
मनोभावों को बखूबी सम्प्रेषित कर पाते हैं। भाषा पर अधिकार मानव की
सजृनात्मकता को अभिव्यक्ति, कल्पना को जुबान और कथ्य को आकार प्रदान करता
है। किसी भी व्यक्ति का भाषा पर अधिकार उसको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
उत्कृष्ट प्रदर्शन करने में सहायता प्रदान करता है। यूपीएससी की परीक्षा भी
इस कथन के दायरे से बाहर नहीं हैं।
मैंने अपनी समझ में यूपीएसी
टॉपरों में कुछ ऐसे गुण अनुभव किए हैं, जो उन्हें आम से खास बनाते हैं और
उनकी सफलता की राह काफी आसान कर देते हैं। जैसे :IAS, 2015 Batch. Masters in Public Management. M.Phil. Hindi, Books-Travel-Music-Cinema Enthusiast.
Thursday, 22 September 2016
भाषा पर अधिकार बना सकता है अधिकारी
Thursday, 15 September 2016
दिवाली की यादें ......
दिवाली की यादें ......
युवावस्था के इस पड़ाव पर जब मुड़कर बचपन की ओर देखता हूँ तो बचपन की खट्टी-मीठी यादों में दिवाली की यादें भुलाए नहीं भूलती। दिवाली के साथ ग़ज़ब के संयोग जुड़े हैं। 1986 की छोटी दिवाली को मेरठ के सरकारी अस्पताल में मैं जन्मा। मम्मी बताती हैं कि नर्स ने चुटकी लेते हुए कहा कि लो तुम्हारे राम पधारे हैं।
ख़ैर, हर शहर का पुराना इलाक़ा उस शहर की संस्कृति और जीवंतता का प्रतीक होता है। पूरा बचपन और किशोरावस्था पुराने मेरठ शहर के गली-कूँचों और मुहल्लों में बीती। होली और दिवाली हम बच्चों के पसंदीदा त्यौहार थे। जिस तरह होली के आस-पास हमारे मुहल्ले से बिना रंगों में पुते निकलना नामुमकिन था, उसी तरह दिवाली पर भी गली में आगंतुकों का स्वागत पटाखों से किया जाता। अनार, चकरी, बिजली बम, रोक़िट और लड़ी, सबसे लोकप्रिय पटाखे थे।
दिवाली का दूसरा महत्वपूर्ण एंगिल था - घर की सम्पूर्ण सफ़ाई। इस पुनीत कार्य में बच्चा पार्टी का भरपूर सहयोग लिया जाता। मुझे बख़ूबी याद है कि हम सारे पलंग बाहर निकलकर, छत और कमरों के कोने-कोने बुहारते। पलंग बाहर निकल जाने पर कमरा बड़ा-बड़ा दिखता और बच्चे ख़ूब धमाचौकड़ी मचाते।
दिवाली पर स्कूल में लगातार पाँच दिन छुट्टी होती थी। गरमी की छुट्टियों के बाद यही सबसे लम्बी छुट्टियाँ थी। मम्मी घर को संवारना और कम ख़र्चे में घर चलाना बख़ूबी जानती थीं। धनतेरस पर चाहे एक तश्तरी या चम्मच ही ख़रीदें पर ख़रीदती ज़रूर थीं। दिवाली पर पटाखे बहुत महँगे पड़ते थे पर हम बच्चे थोड़े में संतुष्ट हो जाते। थोड़ा और बड़े होकर समझ में आया कि पटाखे ख़रीदने से अच्छा है, छत पर जाकर आराम से आतिशबाज़ी निहारो। न हींग लगता न फ़िटकरी, और रंग भी चोखा होता। न आतिशबाज़ी में हाथ जलाने का जोखिम और न ही धेले भर का ख़र्चा। मुझे याद है कि हम बच्चे मिलकर घर के मुख्य द्वार पर रंगबिरंगी कंदील टाँगते थे, जिसका तार बहुत लम्बा होता था।
ख़ास बात यह थी कि चाहे कोई बाहर पढ़ता हो या नौकरी करता हो, दिवाली के दिन घर आना और दादी के हाथ की पंजीरी या लौकी की बर्फ़ी खाना लगभग अनिवार्य होता था। इस बार दिवाली पर अम्माजी की कमी तो बहुत खलेगी, पर हम उनके जीवट और जीवंतता से प्रेरणा लेकर ख़ूब मन से दिवाली मनाएँगे।
जैन परिवारों में दिवाली भगवान महावीर का निर्वाण दिवस भी है। जब भगवान महावीर आठों कर्मों का नाश करने की ओर अग्रसर होकर गहन ध्यान में तल्लीन थे, तब उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) इंद्रभूति गौतम स्वामी कैवल्य ज्ञानप्राप्ति की ओर अग्रसर थे। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन, यह अद्भुत संयोग बना, जब तीर्थंकर महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ और गौतम स्वामी को कैवल्य। इस संदर्भ में महावीर की एक बात उन्हें विशिष्ट बनाती है। उन्होंने अपने शिष्य से कभी अपना अनुकरण करने के लिए नहीं कहा। उनका मानना था कि प्रत्येक मानव रत्नत्रय- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के पथ पर चलकर अपने पुरुषार्थ से सिद्धत्व प्राप्त कर स्वयं भगवान बन सकता है। इस तरह भगवान महावीर प्राणियों से अपनी शरण में आने को नहीं कहते। वह प्रत्येक जीव को उसका अनंत बल और क्षमताएँ स्मरण कराकर प्रत्येक आत्मा के परमात्मा बन सकने की सम्भावना व्यक्त कर प्राणिमात्र की स्वतंत्रता की घोषणा करते हैं। महावीर ने यही उपदेश अपने सबसे निकट शिष्य इंद्रभूति गौतम को दिया और उन्हें कैवल्य का मार्ग दिखाया।
मुझे बख़ूबी याद है, दिवाली की पूर्व संध्या पर मंदिर में तीर्थंकर प्रतिमा के समक्ष जब पूरा परिवार घी के दिये जलाने जाता और दिवाली की अलसुबह चार-पाँच बजे सब मिलकर जैन मंदिर में निर्वाण लड्डू या श्रीफल अर्पित करते। दिवाली की रात को घर पर पूजा तो होती ही थी। जैन समुदाय दिवाली पर तीर्थंकर भगवान के कैवल्य ज्ञान रूपी लक्ष्मी की उपासना करता है। साथ ही पूजा में 'निर्वाण काण्ड' का पाठ होता। निर्वाण काण्ड उन सभी सिद्धों की स्तुति है, जिन्होंने आत्मसाधना द्वारा मोक्ष प्राप्त किया। जैन दर्शन की यह विशेषता है कि यह किसी भी व्यक्ति विशेष की पूजा पर बल न देकर गुणों की पूजा करता है। यही कारण है कि जैन धर्म का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण मंत्र 'नमोकार मंत्र' भगवान महावीर या किसी अन्य तीर्थंकर की उपासना न करके कैवल्य प्राप्त करने वाले सभी अरिहंतों व सिद्धों और सभी साधुओं को नमस्कार करता है।
ज्ञान और तप-त्याग-संयम को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के कारण ही जैन लोग दिवाली का उत्सव तो मनाते हैं, पर धर्माराधना और सादगी के साथ।
क्या हैं पर्यूषण, क्षमावाणी और दशलक्षण.....
क्या हैं पर्यूषण, क्षमावाणी और दशलक्षण.....
आज-कल आप अख़बार और सोशल मीडिया पर 'पर्यूषण पर्व', 'क्षमावाणी पर्व','दशलक्षण पर्व' और 'सम्वत्सरी' के बारे में पढ़-देख रहे होंगे। लोग साल भर की ग़लतियों और भूलों के लिए एक-दूसरे से क्षमा माँग रहे हैं तो कुछ लोग व्रत-तप-संयम में लीन होकर आत्मसाधना में जुटे हैं। आइए जानते हैं- क्या है जैन समाज के इन पर्वों का मतलब:-
सावन के बाद आने वाला भादों (भाद्रपद) का महीना जैन धर्म के अनुयायियों के लिए बेहद पवित्र है। जैन समुदाय के दोनों सम्प्रदायों- दिगंबर और श्वेतांबर, के लिए यह पूरा माह आत्मशुद्धि और सार्वभौम क्षमा को समर्पित है। भादों के महीने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है- पर्यूषण, जो श्वेतांबर जैनों के लिए आठ और दिगम्बर जैनों के लिए दस दिनों का होता है। पर्यूषण का अर्थ है- ख़ुद के निकट आना। पर्यूषण पर्व तप-त्याग-संयम और क्षमा का पर्व है। ज़्यादातर लोग उपवास के माध्यम से तप-साधना करते हैं।
श्वेतांबर जैन समुदाय के लिए पर्यूषण पर्व आठ दिनों का होता है, जिसका अंत सम्वत्सरी पर होता है। सम्वत्सरी के अगले दिन दिगम्बर जैनों के दस दिन के पर्यूषण शुरू होते हैं। इन दस दिनों में धर्म के दस लक्षणों की आराधना के कारण दिगम्बर लोग इसे 'दशलक्षण पर्व' के नाम से भी जानते हैं। धर्म के दस लक्षण हैं- क्षमा, मार्दव (मान का अभाव), आर्जव (छल-कपट से दूर रहना), शौच(पवित्रता), सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचन (सहजता और परिग्रह से दूर रहना) और ब्रह्मचर्य (सदाचार)। दिगम्बर जैन समुदाय के दस दिन चलने वाले पर्यूषण का समापन 'अनंत चतुर्दशी' और फिर 'क्षमावाणी' के साथ होता है। अनंत चतुर्दशी पर लोग साल भर के व्रतों का पारायण करते हैं। दिगम्बर समाज के लोग इस दिन नगर में तीर्थंकर भगवान की रथयात्रा भी निकालते हैं।
'सम्वत्सरी' और 'क्षमावाणी' क्षमा के दिन हैं। मेरी समझ में दुनिया के किसी भी धर्म-समुदाय में क्षमा का कोई त्यौहार नहीं है, इस तरह यह एक अनूठा पर्व है। घर-परिवार से लेकर समाज तक, सब एक-दूसरे से माफ़ी माँगते हैं और दूसरों को सहर्ष माफ़ करते भी हैं। 'सबसे क्षमा-सबको क्षमा' इस पर्व का मूलमंत्र है। सब प्राकृत भाषा में 'मिच्छामी दुक्कड़म' कहकर एक-दूसरे से हृदय से क्षमा माँगते हैं। जैनों को क्षमा का विस्तार मनुष्य तक ही नहीं प्राणीमात्र तक है-
"खामेमि सव्व जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे,
मिती मे सव्व भुए सू, वैरम मज्झ न केवई।"
(प्राकृत)
"I grant forgiveness to all, May all living beings grant me forgiveness.
My friendship is with all living beings, My enemy is totally non-existent."
(English Translation)
--निशान्त जैन
मेरे लिए शिक्षक दिवस के मायने....
मेरे लिए शिक्षक दिवस के मायने....
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आज मैं जो कुछ भी हूँ, या ज़िंदगी में मैंने जो कुछ भी अच्छा किया है, उसमें मेरे शिक्षकों की बहुत बड़ी भूमिका है। नर्सरी की क्लास टीचर निर्मला दीदी ( हम मैम को दीदी कहते थे) का मातृवत वात्सल्य आज भी यादों में ताज़ा है। मेरी माँ बताती हैं, कि एक बार स्कूल जाने के बाद, मैंने फिर कभी स्कूल जाने में आना-कानी नहीं की। इसका बड़ा कारण मेरे शिक्षक और स्कूल का आत्मीय माहौल था। माँ एक और मज़े की बात बताती हैं। अगर घर पर कभी माँ पढ़ाती, तो मैं अक्सर उसे यह कहकर ख़ारिज कर देता, कि स्कूल में दीदी ने यह नहीं बताया या उन्होंने जो बताया है, वही ठीक है। फिर माँ ने स्कूल की टीचर को यह बात बतायी। जब टीचर ने मुझे समझाया कि घर वाले जो पढ़ाते हैं, वह भी ठीक होता है, तब जाकर तो मैंने माँ का पढ़ाया हुआ सही मानना शुरू किया।
छठी क्लास की एक ओर मज़ेदार बात मैं कभी नहीं भूलता। हमारे स्कूल में परीक्षा के नतीजे आने के बाद अभिभावकों को उत्तर पुस्तिका दिखायी जाती थी। मेरी माँ मेरी कापी देखने पहुँची। क्लास टीचर श्री रामदर्शन जी जमकर मेरी प्रशंसा कर रहे थे। पर माँ तो माँ ठहरी, कहने लगीं कि मेरा बेटा घर पर ग़ुस्सा बहुत करता है। क्लास टीचर मुस्कुराए और बोले, "बहन जी, दूधारू गाय की तो लात भी सहनी पड़ती है।"
स्कूल में एक शिक्षक थे -संदीप जी। वे हम सबको बड़े भाई जैसे लगते। पढ़ाई के अलावा भी ढेर सारी उलझनें हम उनसे खुलकर साझा करते। गणित और विज्ञान का डर उन्होंने ही हमारे मन से निकाला। किसी विषय में हमारी रुचि उस विषय के शिक्षक के व्यवहार, स्वभाव और पढ़ाने के तरीक़े पर भी काफ़ी हद तक निर्भर होती थी। संदीप जी कठिन माने जाने वाले विषयों को हँसते-मुस्कुराते पढ़ाते और हम भी हँसते-मुस्कुराते सीखते जाते।
माध्यमिक स्तर पर वाणिज्य के शिक्षक थे-राजकुमार सर। मैंने अपनी अभी तक की ज़िंदगी में इतनी सरलता, विनम्रता और सहजता बहुत कम लोगों में देखी है। कठिन विषय की समस्याएँ घर पर बुलाकर भी समझा देते।
मेरठ कालिज के शिक्षकों को भी मैं कभी नहीं भूलता। विशेषकर तत्कालीन प्राचार्य डॉ एस के अग्रवाल और हिंदी विभाग के शिक्षक डॉ रामयज्ञ मौर्य। प्रिन्सिपल सर जैसे कर्मठ और सहृदय व्यक्ति आसानी से नहीं मिलते। सकारात्मक मोटिवेशन देना तो कोई उनसे सीखे। जब मैं और मेरा साथी विवेक डिबेट में पहला पुरस्कार और शील्ड जीतकर लौटे, तो पूरे स्टाफ को अपनी जेब से जलेबी खिलाकर प्रिन्सिपल साहब ने हमारा उत्साह कई गुना बढ़ा दिया था।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के शिक्षकों से जीवन और सोच के आयामों का विस्तार करने की सीख मिलती। साहित्य-आलोचना जगत के बड़े-बड़े दिग्गजों का सान्निध्य मिलना भावभूमि, चेतना और संवेदना का विस्तार करता है। डॉ राजेंद्र गौतम, प्रो अपूर्वानंद, प्रो गोपेश्वर सिंह, प्रो हरिमोहन शर्मा, प्रो पूरनचंद टंडन जैसे शिक्षकों का व्यक्तित्व स्वयं में अभिप्रेरणा का स्त्रोत है। धवल जैसवाल और मिहिर पण्ड्या जैसे सीनियर्स से भी बहुत कुछ सीखा। हिंदी साहित्य के विविध आयामों को सीखने में डॉ विकास दिव्यकीर्ति का योगदान भुलाया नहीं जा सकता।
ख़ैर, मुझे ऐसा लगता है कि शिक्षक सब कुछ देकर हमसे कुछ नहीं माँगते। हमें उन्हें सिर्फ़ थोड़ा सा सम्मान ही तो देना होता है, पर अक्सर वो भी हम नहीं दे पाते।
कुछ लोगों को यह भी लगता है कि शिक्षक दिवस साल में एक दिन ही क्यों मनायें, रोज़ ही शिक्षकों का सम्मान करना चाहिए। बात बिलकुल ठीक हैं। पर मुझे लगता है, कि अगर एक दिन शिक्षक दिवस जे बहाने ही सही, रस्म अदायगी के बहाने ही सही, यदि हम अपने शिक्षकों को मन से याद कर लें, दूर होने के कारण मिल न सकें तो फ़ोन ही कर लें और उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता महसूस कर लें, तो इतना भी काफ़ी है।
देर से ही सही, सभी शिक्षकों और शिष्यों को शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!!!
सीखते रहें और सिखाते रहें।
सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी की सम्भावनाएँ....
संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा (आई.ए.एस./आई.पी.एस/ आई.एफ.एस. आदि) और राज्य लोक सेवा आयोगों की सिविल सेवा परीक्षा (पी.सी.एस.) भारत की बेहद प्रतिष्ठित लेकिन कठिन मानी जाने वाली परीक्षाएं हैं। सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल करना, हिंदी पट्टी के किसी भी युवा का सपना हो सकता है। हिंदी भाषी राज्यों के ऐसे हज़ारों-लाखों युवक-युवतियां हैं, जो हिंदी माध्यम लेकर इस परीक्षा का तिलिस्म तोड़ना चाहते हैं।
सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी की राह थोड़ी कठिन ज़रूर हो सकती है, पर असम्भव नहीं। अप-टू-डेट अध्ययन सामग्री की कमी और प्रोफ़ेशनल एप्रोच का अभाव हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। लेकिन अगर हिंदी वाले स्मार्ट एप्रोच अपनाएं और हिंदी में उपलब्ध प्रामाणिक स्टडी मैटेरियल की पहचान कर उसका भरपूर इस्तेमाल कर लें, तो इस समस्या से निजात पायी जा सकती है। साथ ही सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ें, तो सफलता की सम्भावनाएं कई गुना बढ़ सकती हैं।
आने वाले दिनों में सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी माध्यम की सम्भावनाएं काफी उज्ज्वल हैं। 2014 की सिविल सेवा परीक्षा में सौभाग्य से मुझे 13वीं रैंक और हिंदी माध्यम में पहला स्थान मिला था। 2015 में भी हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों ने 62वीं और 99वीं रैंक हासिल की है। हिंदी माध्यम वाले अपनी मेहनत और दृढ़ निश्चय से अपनी राह बना रहे हैं और आगे भी बनाते रहेंगे। आप बस 'अपनी लकीर बड़ी करें'।
अंग्रेज़ी कोई हौव्वा नहीं है। अंग्रेज़ी पर कामचलाऊ पकड़ बना लें, क्योंकि मुख्य परीक्षा में अंग्रेज़ी का क्वालिफ़ाइंग पेपर पास करना होता है। दूसरा, अगर आप अंग्रेज़ी में सहज हैं, तो अंग्रेज़ी में उपलब्ध अच्छे ऑनलाइन मैटीरियल तक भी आप अपनी पहुंच बना सकते हैं। निबंध, एथिक्स और वैकल्पिक विषय के पेपर पर अपनी पकड़ बनाएं, ताकि अंग्रेज़ी माध्यम के अभ्यर्थियों के मुक़ाबले प्रतियोगिता में टिक सकें। वैकल्पिक विषय ऐसा चुनें, जिसमें हिंदी में मैटीरियल और मार्गदर्शन उपलब्ध हो। आजकल हिंदी में भी अच्छी अध्ययन सामग्री की कमी नहीं है। तमाम सरकारी प्रकाशन, जैसे एनसीईआरटी की किताबें, योजना, कुरुक्षेत्र जैसी पत्रिकाए, रेडियो, टीवी और सरकारी वेबसाइटें हिंदी में उपलब्ध हैं। बड़े और मशहूर लेखकों की किताबों के हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध हैं। जैसे पोलिटी के लिए एम लक्ष्मीकान्त और हिस्ट्री के लिए स्पेक्ट्रम। लेखन कौशल पर विशेष ध्यान दें और उत्तर लिखने का नियमित अभ्यास करें। प्रीलिम्स के लिए पिछले सालों के प्रश्नपत्र और टेस्ट सीरीज़ का अभ्यास करते रहें।
हिंदी माध्यम के सिविल सेवा अभ्यर्थियों पर, ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं-
इस नदी की धार से, ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है,
एक चिंगारी कहीं से, ढूँढ लाओ ए दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
--निशान्त जैन, आई.ए.एस, रैंक 13, UPSC-2014 (हिंदी माध्यम में सर्वोच्च स्थान)
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