मैं शहर हूं....
मुस्कानों का बोझा ढोए,
धुन में अपनी
खोए-खोए
ढूंढता कुछ पहर
हूं।
मैं शहर हूं।
बेमुरव्वत भीड़ में,
परछाइयों की निगहबानी,
भागता-सा हांफता-सा
शाम कब हूं,
कब सहर हूं,
मैं शहर हूं।
सपनों के बाजारों में
क्या,
खूब सजीं कृत्रिम मुस्कानें,
आंखों में आंखें,
बातों में बातें,
खट्टी-मीठी तानें,
नजदीकी में एक
फासला,
मन-मन में
ही घुला जहर
हूं।
मैं शहर हूं।
मन के नाजुक
से मौसम में,
भारी-भरकम बोझ
उठाए,
कागज की किश्ती
से शायद,
हुआ है अरसा
साथ निभाए,
खुद के अहसासों पर
तारी,
हूं सुकूं या
फिर कहर हूं।
मैं शहर हूं।